|| कृण्वन्तो विश्वमार्यम ~ Let's make the world a noble place for the entire human race ||
20 Apr 2018 2 Comments
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आश्वस्त हूं…
सर्प क्यों इतने चकित हो,
दंश का अभ्यस्त हूं,
पी रहा हूं विष युगों से,
सत्य हूं, आश्वस्त हूं…
ये मेरी माटी लिए है,
गंध मेरे रक्त की,
जो कहानी कह रही है,
मौन की अभिव्यक्त की,
मैं अभय ले कर चलूंगा,
ना व्यथित ना त्रस्त हूं…
है मेरा उद्गम कहां पर,
और कहां गंतव्य है,
दिख रहा है सत्य मुझको,
रूप जिसका भव्य है…
मैं स्वयं की खोज में
कितने युगों से व्यस्त हूं..
वक्ष पर हर वार से,
अंकुर मेरे उगते रहे,
और थे वे मृत्यु भय से
जो सदा झुकते रहे,
भस्म की सन्तान हूं
मैं मैं कभी ना ध्वस्त हूं…
है मुझे संज्ञान इसका,
बुलबुला हूं सृष्टि में,
एक लघु सी बूंद हूं मैं,
एक शाश्वत वृष्टि में,
है नहीं सागर को पाना
मैं नदी संन्यस्त हूं…
– प्रसून जोशी
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