गुज़ारिश है हवाआें की हमें सूरज से मिलवाआे
हमें भी राेशनी के क़ाफ़िलाें के साथ ले जाआे
हमें मालूम हैं अपनी हदें हम कैसे कुछ बाेलें
खिली हाे धूप ताे नाचीज़ दीपक कैसे मुहँ खाेलें
मगर माैसम की जिद है,फूल भी इसरार करते हैं
उन्हें मिलना है सूरज से ,वाे उसकाे प्यार करते हैं
चलाे करते हैं काेिशश आज उसका जिक्र करते हैं
उजालाें के समन्दर में ज़रा सा हम उतरते हैं
अजब सा ये समन्दर है जाे तुमसे मिलने आता है
ख़ुदा रहना नहीं चाहता तुम्हारे साथ गाता है
समन्दर काे नहीं मालूम उसका दिल कहाँ तक है
उसे ताे क़तरा क़तरा बस छलक जाने की आदत है
उसे था आसमां छूना मगर अपनी ही शर्ताें पर
उसे था जीतना वाे भी मगर अपनी ही शर्ताें पर
वाे ऐसी राेशनी चाहता था जिसमें हाें न अंगारे
वाे एेसी जीत चाहता था जहाँ काेई भी ना हारे
दरख़्तों के उसूलों काे समझने की कराे कोशिश
अलग मिट्टी से बनते हैं अलग है उनकी हर ख़्वाहिश
वाे गमले का नहीं पाैधा जहाँ चाहे उगा दाे तुम
जहाँ चाहे लगा दाे तुम,जहाँ चाहे सजा दाे तुम
वाे उगते हैं ज़मीं पे दिल की,दिल में ही धड़कते हैं
वाे लाेगाें से जुड़े हैं आैर उन्हीं में जिन्दा रहते हैं
चमकती चीज़ काे छूने काे दुनिया पास आती है
हाे शाेहरत पास जिसके सुर में उसके सुर मिलाती है
मगर सूरज उतरता है ताे भीड़ें छँटती जाती हैं
कहीं सजदे कहीं,इज़्ज़त,इबादत मुस्कुराती है
इसे शाेहरत नहीं कहते बस उसका नूर कहते हैं
बुलन्दी भी नहीं कहते करम भरपूर कहते हैं
वाे कहता है मेरे हिस्से की ख़ुशियाँ बाँट दाे जा कर
है जितना दर्द सब भर दाे मेरे सीने में तुम ला कर
मेरी झाेली में जाे आएगा मैं वाे सब लुटाऊँगा
जहाँ से जाे मिला है सब जहाँ काे दे के जाऊँगा
मिली सबकाे जु़बां पर अाँख उसकी बात करती है
मिले साेहबत अगर उसकी ताे ख़ामाेशी भी कहती है
बस उसका ज़िक्र करने से सँवरते जाएँगे हम भी
धुलेंगे उसकी बारिश में निखरते जाएँगे हम भी
सँवरते जाएँगे हम भी
निखरते जाएँगे हम भी
~ प्रसून जोशी
Jun 15, 2014 @ 01:53:27
Nice one