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- मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया ।
- मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया ।
- मैंने गीतों को रच करके भी देख लिया ।
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मैंने ऐसा कुछ कवियों से सुन रखा था
जब घटनाएँ छाती के ऊपर भार बनें,
जब साँस न लेने दे दिल को आज़ादी से
टूटी आशाओं के खंडहर, टूटे सपने,
तब अपने मन को बेचैनी की छंदों में
संचित कर कोई गाए और सुनाए तो
वह मुक्त गगन में उड़ने का-सा सुख पाता।
लेकिन मेरा तो भार बना ज्यों का त्यों है,
ज्यों का त्यों बंधन है, ज्यों की त्यों बाधाएँ।
मैंने गीतों को रचकर के भी देख लिया।
‘वे काहिल है जो आसमान के परदे पर
अपने मन की तस्वीर बनाया करते हैं,
कर्मठ उनके अंदर जीवन के साँसें भर
उनको नभ से धरती पर लाया करते हैं।’
आकाशी गंगा से गन्ना सींचा जाता,
अंबर का तारा दीपक बनकर जलता है,
जिसके उजियारी बैठ हिसाब किया जाता।
उसके जल में अब नहीं ख्याल नहीं बैठे आते,
उसके दृग से अब झरती रस की बूँद नहीं,
मैंने सपनों को सच करके भी देख लिया।
यह माना मैंने खुदा नहीं मिल सकता है
लंदन की धन-जोबन-गर्विली गलियों में,
यह माना उसका ख्याल नहीं आ सकता है
पेरिस की रसमय रातों की रँरलियों में,
जो शायर को है शाने ख़ुदा उसमें तुमको
शैतानी गोरखधंधा दिखलाई देता,
पर शेख, भुलावा दो जो भोलें हैं।
तुमने कुछ ऐसा गोलमाल कर रक्खा था,
खुद अपने घर में नहीं खुदा का राज मिला,
मैंने काबे का हज़ करके भी देख लिया।
रिंदों ने मुझसे कहा कि मदिरा पान करो,
ग़म गलत इसी से होगा, मैंने मान लिया,
मैं प्याले में डूबा, प्याला मुझमें डूबा,
मित्रों ने मेरे मनसुबों को मान दिया।
बन्दों ने मुझसे कहा कि यह कमजो़री है,
इसको छोड़ो, अपनी इच्छा का बल देखो,
तोलो; मैंने उनका कहना भी कान किया।
मैं वहीं, वहीं पर ग़म है, वहीं पर दुर्बलताएँ हैं,
मैंने मदिरा को पी करके भी देख लिया,
मैंने मदिरा को तज करके भी देख लिया।
मैंने काबे का हज़ कर के भी देख लिया।
मैंने सपनों को सच कर के भी देख लिया।
मैंने गीतों को रचकर के भी देख लिया ।
– हरिवंशराय बच्चन
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