आदमी बुलबुला है पानी का
और पानी की बहती सतह पर टूटता भी है, डूबता भी है,
फिर उभरता है, फिर से बहता है,
न समंदर निगला सका इसको, न तवारीख़ तोड़ पाई है,
वक्त की मौज पर सदा बहता – आदमी बुलबुला है पानी का।
ज़िंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है।
आज तक कोई भी रहा तो नहीं॥
सारी वादी उदास बैठी है,
मौसम-ए-गुल ने खुदकुशी कर ली।
किसने बारूद बोया बागों में॥
आओ हम सब पहन लें आईनें,
सारे देखेंगे अपना हीं चेहरा।
सब को सारे हसीं लगेंगे यहाँ॥
हैं नहीं जो दिखाई देता है,
आईने पर छपा हुआ चेहरा।
तर्जुमा आईने का ठीक नहीं॥
हमको ग़ालिब ने ये दुआ दी थी,
तुम सलामत रहो हजार बरस।
ये बरस तो फ़क़त दिनों में गया॥
लब तेरे मीर ने भी देखे हैं,
पंखुरी इक गुलाब की सी है।
बातें सुनते तो ग़ालिब हो जाते॥
ऎसे बिखरे हैं रात-दिन जैसे,
मोतियों वाला हार टूट गया।
तुमने मुझको पिरोके रखा था॥
– गुलज़ार
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