दो हज़ार बारह…


नफ़रत और पराएपन की खाइयां भर दे

(उम्मीद है तू बारहबाट नहीं करेगा सन दो हज़ार बारह)

दो हज़ार बारह,
कर सके तो इतना कर दे,
ये जो खाइयां-सी खुद गई हैं न दिलों में
नफ़रत और पराएपन की, इन्हें भर दे।

और दे सके तो
शासकों में इसके लिए फ़िकर दे,
और फ़िकर भी जमकर दे।
भ्रष्टाचारियों को डर दे,
और डर भी भयंकर दे।
संप्रदायवादियों को टक्कर दे,
और टक्कर भी खुलकर दे।
बेघरबारों को घर दे,
और घरों में जगर-मगर दे।
ज़रूरतमंदों को ज़र दे,
और ज़र भी ज़रूरत-भर दे।
कलाकारों को पर दे,
और पर भी सुंदर दे।
उनमें चेतना ऐसी प्रखर दे,
कि खिडक़ियां खुल जाएं हट जाएं परदे।
प्रश्नों को उत्तर दे, उत्तरों को क़दर दे।
हां, नेताओं को और भी मोटे उदर दे,
उदर ढकने को और भी महीन खद्दर दे।
विचार को बढ़ा, ग़ुस्सा कम कर दे,
मीडिआ को टीआरपी दे
पर सच्ची ख़बर दे।

अभिनय को देवानंद का हुनर दे,
चित्रकारी को हुसैन के कलर दे,
संगीत को भीमसेन जोशी, हज़ारिका,
और जगजीत का स्वर दे,
भारतभूषण और अदम गौंडवी की स्मृतियां अमर दे।

ख़ैर, ये सब दे, दे, न दे
तू तो बस इतना कर दे,
ये जो खाइयां-सी खुद गई हैं न दिलों में
नफ़रत और पराएपन की, इन्हें भर दे।

-अशोक चक्रधर

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